होसूर की हवाओं में समुद्री जीवन

IMG_1198होसूर की नर्म हवा में घुले ढेर सारे प्रेम ने आर्टोलॉग के आखिर चरण की यात्रा को सुखद बना दिया है.

पहले हमें यहां एक घर में पेंट करना था लेकिन अब वहां के द टाइटन स्कूल की प्रिंसिपल चाहती थीं कि हम स्कूल में बच्चों के साथ पेंट करें.

120 बच्चे, संख्या बड़ी थी और दीवार भी. करीब तीस फीट लंबी और चार फीट चौड़ी.

हमने पहले बच्चों को मीनाक्षी की बनाई कुछ पेंटिंग्स दिखाईं और उनके सवालों के जवाब दिए. सवाल कई थे. हम कहां से आए हैं. क्या पेंट करते हैं क्यों करते हैं.

फिर शुरु हुई दीवार को रंगने की उत्साह भरी कोशिश. हमने बैच में बच्चों को बुलाया और पहले बैच से दीवार पर ब्रश से एक स्ट्रोक लगाने को कहा. दूसरे बैच से काले रंग में एक बिंदु लगाने को जहां वो चाहें. तकरीबन सभी बच्चों ने पुराने स्ट्रोक्स के पास ही काले बिंदु लगाए.

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इसके बाद बाकी के दो बैच के बच्चों से हमने कहा कि वो इन स्ट्रोक्स से जो चाहे बना सकते हैं.

पहले बनी एक मछली (शायद मीनाक्षी के पेंटिंगों में कुछ मछलियां दिखी थी उन्होंने सो मछली आई होगी बच्चों के दिमाग में) लेकिन फिर कछुआ, केकड़े, सी-हॉर्स, सांप और न जाने कौन कौन से जानवर बनते चले गए

हम बस बच्चों को गाइड करते रहे कि कौन सा रंग इस्तेमाल करें प्रभाव के लिए.

120 बच्चे पेंट कर चुके थे लेकिन इसी दौरान कई शिक्षक भी आकर खड़े हो गए थे. कुछ ने कहा कि क्या वो भी पेंट नहीं कर सकते.

हमने उनके लिए दूसरा दिन तय किया और यकीन मानिए दूसरे दिन शिक्षक तय समय से पहले ही वहां खड़े मिले.

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फिर तो कंप्यूटर मछली, गाने वाली मछली और एक जलपरी भी बन गई.

जलपरी एक शिक्षिका ने बनाई. करीब दो घंटे दीवार पर महीन कारीगरी करने के बाद जब हमें जलपरी दिखी तो हम भी आश्चर्यचकित हो गए.

वो बोलीं, ” मेरा एक सपना था जलपरी बनाने का. आपने दीवार पर ये बनाने की आज़ादी दी. मैं पता नहीं कैसे आपका शुक्रिया अदा करुं.”

हमने इस पेंटिंग को नाम दिया द मरीन लाइफ यानी समुद्री जीवन. हम पिछले एक महीने में अधिकतर समय समुद्र के किनारे ही बिता कर आए थे. हो सकता है कि ये उसी का प्रभाव हो.

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पेंटिंग के दौरान ही एक शिक्षिका मीनाक्षी के लिए चूड़ियां लेकर आईं तो कुछ बच्चे बुकमार्क पर पेंटिंग कर के मीनाक्षी के लिए लेकर आए. दो दिनों में ही एक रिश्ता बन गया था और लोग मीनाक्षी को कुछ न कुछ भेंट करना चाह रहे थे.

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दूसरे दिन जब टीचर्स पेंटिंग कर रहे थे तो पास में ही नर्सरी और एळकेजी के बच्चे भी जमा हो गए थे. वो रंग छूते और अपने गालों पर लगा लेते.

हमने उनके हाथ रंग कर उनकी हथेलियों के निशान लगा दिए पेंटिंग के किनारों पर जो एक बार्डर सा बन गया. रंगीन.

लेकिन शायद ये बच्चे इससे मानने वाले नहीं थे. इनमें से कई बच्चे वापस अपनी कक्षाओं में गए और बोर्ड पर उसी तरह आकृतियां बनाने लगे जैसा उन्होंने अपने शिक्षकों को दीवार पर बनाते देखा था.

ये पल अभिभूत करने वाला था. हमें लगा कि हमने छोटे से बच्चों में छुपे कलाकार को उकसा लिया है और ये अहसास लंबे समय तक साथ रहने वाला था.

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