संथाल टोला सुनते ही मुझे फूदन माझी की याद आती है. उसका सरसों के तेल में चुपड़ा बदन और उसकी वो बांसुरी.
ये पुरानी बात है. अब मालूम भी नहीं फूदन माझी कहां है. आज हम लोग कल्याण टुडू के घर पर हैं जहां माझी थान यानी उनके भगवान के घर को रंगना है.
मदद करेगी सरिता टुडू जो उनकी बहू है. साथ देगी नीलम….कल्याण टुडू की बेटी.
हम सब एक दिन पहले जा कर मिल चुके थे और कल्याण टुडू यह सुनकर खुश हुए थे कि हम लोग वहीं खाना खाएंगे. मुर्गा भात मेन्यू तय कर दिया गया था.
सुबह पहुंचे तो कल्याण टुडू मस्त अवस्था में थे और बार बार कह रहे थे कि वो बहुत खुश हैं दिल्ली से लोगों के आने पर. कभी कभी नशा ज़ोर मारता तो चिल्लाते और गांव के लोगों को बताते कि देखो ये लोग दूर से आया है मेरा माझी थान रंगने.
साथ में आए गिरिन्द्र के कुछ खेत संभालते हैं कल्याण टुडू और गिरिन्द्र को अपने बच्चे की तरह मानते हैं.
कल्याण नाराज़ थे कि माझी थान को लीपने के लिए उन्हें थोड़ा और समय दिया जाना चाहिए था लेकिन उनकी बहू ने कहा कि कोई बात नहीं पेंटिंग हो जाएगी.
सरिता ने पहले तो मीनाक्षी को मिट्टी के डिजाइन बनाना सिखाया उस माझी थान की दीवारों पर. थोड़ा कठिन था लेकिन मीनाक्षी धीरे धीरे सीख ही गई.
अब रंगने की बारी थी. एक रंग खत्म हो गया तो लालो (सरिता के पति) चले गए दुकान गिरिन्द्र के साथ रंग लाने. नदी का पानी पार कर दोनों जल्दी लौटे और फिर रंग घोलने का काम शुरु हुआ.
साबूदाना और पानी गरम कर रंगों के साथ मिलाया गया. इससे रंग पकड़ता है ठीक से मिट्टी पर. नई बात थी ये हमारे लिए.
फिर पटसन के ब्रश जो हमने पहली बार देखे थे. उससे रंगने का काम शुरु हुआ. सरिता ने मीनाक्षी को कुछ डिजाइन्स पर रंगने को कहा और फिर बोली- तुम कर लेती हो करो अपने मन से.
कुछ ऐसा ही हम दोनों भी बच्चों के साथ करते हैं. अगर बच्चे ने दो ब्रश ठीक मारा तो आगे उसे अपने मन से काम करने देते हैं.
यहां हम बच्चे थे और सरिता टुडू थी हमारी भूमिका में.
सरिता और मीनाक्षी ने मिलकर माझी थान को लगभग पूरा रंग दिया. काम में दो तीन महिलाएं भी जुट गईं बिना कहे ही. थान सबका है सबको करना है ये भावना आदिवासियों में अब भी है.
चारों तरफ लोग जुटे हुए थे देखने कि परदेस के लोग क्या करने आए हैं.
मैं तस्वीरें खींचता रहा पूरे समय और कभी कभी कल्याण टुडू की मस्ती का आनंद भी लेता रहा. बीच में कल्याण टुडू हमारे लिए एक फल लेकर आए चरसेरा. जिसेे काट कर चूसा जाता है. इससे गर्मी में शरीर में पानी की कमी नहीं होती.
स्थानीय तरीका गर्मी से बचने का.
हां इस बीच पता चला कि हमारे खाने के लिए जो मुर्गा लाया गया था वो रात में पेड़ पर चढ़कर सो गया था.
सुबह भी पकड़ में नहीं आ रहा था. अचानक दोपहर बारह बजे पकड़ में आया तो खाने में देर कर दी गई. मुर्गा अब पक रहा था.
देसी मुर्गे का स्वाद और वो भी आदिवासी स्टाइल में पका हुआ..स्वाद को लिख पाना मुश्किल है.
खैर कड़ी धूप में मीनाक्षी थक गई लेकिन सरिता के हाथ तेज़ी से चलते रहे.
उसकी आवाज़ हम लोगों ने कम ही सुनी लेकिन मीनाक्षी और सरिता में एक संबंध बन चुका था.
जब कुछ टीवी चैनल वाले आए तो हमने यही कहा कि सरिता ही बताएगी क्योंकि आज तो हमने सीखा है. आज की गुरु सरिता है.
सरिता डर गई थी बोलने से. शायद कैमरा पहली बार देखा होगा उन्होंने इतना बड़ा. लेकिन उनके चेहरे पर खुशी के भाव थे. फिर मीनाक्षी ने स्पष्ट किया कि उसने क्या क्या सीखा है सरिता से.
ये सुनकर सरिता भावुक सी हो गई और फिर अचानक सरिता और मीनाक्षी ने एक दूसरे को गले से लगा दिया.
वो अत्यंत भावुक करने वाला क्षण था हम सभी के लिए. दोनों के चेहरे मानो कह रहे थे कि हम एक दूसरे को समझ रहे हैं.
कितना कुछ सीखने को है आदिवासियों से. पता नहीं हम कितना सीख पाए हैं गांवों में रहने वाले इन आदिम लोगों से.
काश कि सबकुछ सीख पाते और सीख पाते उनकी मूक भाषा जिससे वो रिश्ता कायम कर लेते हैं हर उस आदमी से जिनके अंदर संवेदना होती है.
शायद ऐसे ही मैं कभी फूदन माझी से जु़ड़ गया होऊंगा. आज उनका माझी थान रंग के एक और आदिम हमारे दिल में बस गया है. कल्याण टुडू.
पेंटिंग के दो दिन बाद नीलम ने फोन कर के पूछा था…आप लोग हमें भूले तो नहीं हैं. हमने कहा…तुमको नहीं पता हमने तुम्हें कैसे दिल में सजा रखा है.
पूर्णिया के संथाल टोला से आए कई दिन हो गए लेकिन अभी भी देसी मुर्गे का स्वाद मुंह में है और माझी थान पर बनी आकृतियों का रंग हमारे दिलों में..साथ ही कल्याण टुडू की मस्ती भी.
संथाल टोला हम तुम्हें बहुत मिस करेंगे.