एस एच रज़ा पूरा नाम सैय्यद हैदर रज़ा. हाथों की ऊंगलियां इतनी लंबी कि देखते ही लगे हो न हो ये पेंटर ही होगा.मैंने कभी किसी बड़े पेंटर को इतने नज़दीक से नहीं देखा था.
बीबीसी पर रज़ा का एक इंटरव्यू देखा था. तब वो पेरिस में थे और लौटने वाले थे. तब से कहीं एक दबी सी इच्छा थी मिलने की रज़ा से. मेरी भी और मीनाक्षी की भी.
रज़ा प्रोगेसिव आर्ट मूवमेंट का हिस्सा थे और इस समूह में वो सभी आर्टिस्ट थे जो भारतीय कला को विश्व पटल पर लेकर आए चाहे वो हुसैन हों, तैय्यब मेहता हों, सूज़ा हों या फिर अकबर पदमसी हों.
रज़ा पचास के दशक में पेरिस चले गए और फिर वहीं रहे. लंबे समय तक उन्होंने वहीं काम किया. यूं तो रज़ा ने अलग अलग विषयों पर कई पेंटिंग्स की हैं लेकिन बिंदु पर आधारित उनके चित्रों को दुनिया भर में सराहा और पसंद किया गया.
चित्रों पर हिंदी के वाक्य लिखने की शुरुआत भी शायद रज़ा ने ही की थी. इच्छा प्रबल और सच्ची हो तो मुलाक़ात हो जाती है. 2012 में रज़ा से मुलाक़ात हुई.
उनके घर पर. उम्र नब्बे के पार लेकिन बातें एकदम बच्चों जैसी भोली भाली. अभी भी पेंट करते हैं हर दिन. ऐसा बताया गया. लंबा कद, ऊंचा ललाट, मोटे फ्रेम का चश्मा. लगा साठ के दशक की फिल्मों का कोई हीरो हो जो अब वृद्ध हो गया है.
मैंने बस इतना ही पूछा- भारत आकर कैसा लग रहा है. बोले- बहुत अच्छा लग रहा है अपने देश आ गया हूं. सबकुछ बहुत सुंदर लगता है. पेंट कर रहा हूं.
बस देखता रहा. दिमाग में चल रहा था कि अगर भगवान होते होंगे तो शायद ऐसे ही भोले भाले और सुंदर होते होंगे.
बाद में उन पर लिखी एक किताब ख़रीद लाया. पुस्तक अशोक वाजपेयी ने लिखी है- A Life in Art- RAZA. उसी पुस्तक से रज़ा की लिखी कई चिट्ठियों से दो चिट्ठियां के कुछ अंश आपके पेशे नज़र.
14 दिसंबर 1978, भोपाल यात्रा के दौरान डायरी का अंश
मुझे कोई आपत्ति नहीं कि चित्रों पर बातचीत की जाए. केवल मेरा यही अनुरोध है कि पहले चित्रों को देखा जाए. पहला स्पर्श, संपर्क, संयोग अपना निज हो. दर्शक और चित्र के बीच कोई अड़चन, रुकावट, कोई दीवार, कोई माध्यम न हो.
आपने, जल्दी में हस्ताक्षर के साथ चाहा, मैं एक चित्र बना दूं. मैंने भी स्वाभाविक सरलता से आपकी ओर देखकर लिख दिया : सस्नेह- रज़ा, और कहा : समय लगता है चित्र बनाने में, एकाग्रता की ज़रुरत होती है. वरना चित्र चित्र नहीं… आप संतुष्ट न लगीं, आंखें बता रही थीं. फिर भी मैंने देखा आपके माथे पर स्थिर था वही ‘‘ बिंदु’’ जिसे मैं सालों से देख रहा हूं और अभी भी उसकी शक्तियों का अहसास कर रहा हूं.
10 दिसंबर 1978
और फिर
‘‘रोटी’’ और उसके बारे में कविता करना हिमाकत की बात होगी.
और यह मैं नहीं करुंगा. मैं सिर्फ आपको आमंत्रित करुंगा कि आप आएं और मेरे साथ, सीधे उस आग तक चलें जहां वह पक रही है… आप विश्वास करें मैं कविता नहीं कर रहा. बस आग की ओर इशारा कर रहा हूं.’’ ‘‘ एक शब्द…मैंने उसी को लिया और पूरे उस दृश्य के विरुद्ध रख दिया. अब मैं स्वतंत्र था कहीं भी जाने के लिए.’’