चांद अंसारी को कला में रुचि थी. उन्हें ठीक ठीक याद नहीं कि वो क्या बनना चाहते थे लेकिन वो कहते हैं, ‘ मैं भी कुछ कुछ आप लोगों जैसा ही करना चाहता था. लेकिन गरीबी इतनी थी कि काम करना पड़ा. अब टेलरिंग का काम करता हूं. बंबई में.’
चांद अंसारी हमें मिले भागलपुर के एक यतीमखाने में. हल्की सी करीने से रखी हुई दाढ़ी. चेक वाली शर्ट और लुंगी में वो बच्चों को एकदम स्पष्ट निर्देश दे रहे थे कि किस खाने में क्या रंग भरना है.
बच्चे उनकी बात सुन रहे थे. मुझे लगा यतीमखाने के स्कूल में पढ़ाते होंगे. पूछा तो बोले नहीं मैं पढ़ाता नहीं….कभी यहां रहता था मैं भी. यहीं पला हूं कुछ साल.
1944 में बने इस यतीमखाने में इस समय सत्तर बच्चे हैं. जिनके लिए पांचेक शिक्षक हैं. बच्चे बदमाश नहीं हैं. उतनी ही बदमाशी करते हैं जितनी करनी चाहिए.
रंगों में रुचि उनकी भी थी. कुछ बच्चों को अभी कागज नहीं मिला है वो स्लेट पर ही लिखते हैं. फटाक से अपने मन का कुछ बना लाए थे सलेट पर और जे को दिखाने लगे थे.
गांव का दृश्य, फूल, बतख और फूलों के डिजाइन, तिरंगा झंडा…सब बना कर ले आए थे. एक कमल का फूल भी था उसमें. हमने पूछा नहीं क्यों बनाया. बेतुका ही होता ये सवाल.
मीनाक्षी से थोड़ा डर रहे थे क्योंकि शायद किसी जींस पहनी लड़की को वो अपने यतीमखाने के परिसर में पहली बार देख रहे थे.
जैसे ही दीवारों पर काम शुरु हुआ. सबने खुद से कतार बना ली और मौका मांगने लगे पेंट करने का.
हमने सबको मौका दिया..लेकिन एक बार जब रंग का चस्का लग गया तो सब बार बार रंग मांगने लगे. इस दौरान ही चांद अंसारी ने सबको शांत किया.
बच्चों से बहुत सारे सवाल करने मुश्किल थे तो हमने चांद अंसारी से ही पूछ ली कई बातें और उन्होंने जो जवाब दिए उससे दिल भर आया.
उन्होंने बताया कि यहां अधिकतर बच्चे तो अनाथ हैं और कई बच्चों के मां बाप इतने गरीब हैं कि वो अपने बच्चों को यहां भेज देते हैं.
तो क्या मां बाप को मिस करते हैं वो बच्चे जो अनाथ हैं.
चांद कहते हैं, ‘हां कुछ बच्चे तो बहुत मिस करते हैं मां पापा को. पकड़ कर रोने लगते हैं कि अम्मी चाहिए अम्मी चाहिए तब मैं इनको अपने घर ले जाता हूं. अपनी पत्नी के पास और कहता हूं यही तुम्हारी अम्मी है.’
ये कहते कहते चांद का चेहरा लरज गया था. चांद बंबई में सूट वगैरह सिलते हैं. बात बदलते हुए उन्होंने अपने डिजाइन किए हुए सूट दिखाना शुरु कर दिया और बोले….आप लोग अच्छा काम कर रहे हैं वर्ना इन बच्चों के पास ऐसे लोग कहां आते हैं.
हमने बताया कि हम पिछले एक महीने से सरकारी स्कूलों के बच्चों से मिल रहे हैं और इसी क्रम में यहां भी पहुंचे हैं. चांद का कहना था कि अगर हम लोगों ने थोड़ा पहले बता दिया होता तो वो बेहतर तैयारी कर के रखते. यानी दीवारों पर सफेद रंग रोगन हो जाता तो शायद पेंटिंग अच्छी हो जाती.
इसी क्रम में चांद भाई से पूछा था कि वो क्या बनना चाहते थे. बोले, ‘आप लोगों को देखकर याद आ रहा है कि रंग मुझे भी पसंद थे. जब छोटा था तो सोचता था कि बड़ा होऊंगा तो बच्चों की मदद करुंगा. खूब घूमूंगा. गरीब थे. घरवालों ने काम पर लगा दिया तो अनाथालय भी छूटा. इतने गरीब थे कि यहां रख दिया था कुछ साल.’
अब चांद जब भी मुंबई से घर आते हैं. बच्चों को थोड़ा समय ज़रुर देते हैं.
अफरोज़, गुलाम, रियासत, रियाज़, पता नहीं कितने नाम जेहन में टकरा रहे थे जो बच्चों ने बताए थे. पता नहीं इनके मां बाप कहां होंगे.
हम, सबके मां बाप तो हो नहीं सकते लेकिन थोड़े रंग उन्हें कुछ पलों की खुशियां दे दें तो हम खुद को खुशकिस्मत समझेंगे.
यतीमखाने में बहुत समय रुक नहीं पाए. मामला इमोशनल हो रहा था.
बच्चे हरी भरी को देखकर खुश हो रहे थे. बार बार हॉर्न बजा रहे थे. खास हॉर्न जो दबाकर बजाया जाता है. हमने जानबूझकर लगाया है ताकि बच्चे जुड़ जाएं हरी भरी से.
निकलने लगे तो बच्चों से हमने कहा..सभी को शुक्रिया…..जवाब में सामूहिक आवाज़ आई वो भी बहुत ज़ोर से….आपका भी शुक्रिया…..
इस शुक्रिया की गूंज बहुत दिनों तक रहेगी….अफरोज़, गुलाम…जावेद, रफीक……और वो सभी नाम भी गूंंजते रहेंगे.जो रंग छूकर खुश हुए थे….