हमारी हरी बुलेट डासना जेल के गेट पर रुकने ही वाली थी कि सिपाही ने डपटा, ‘इधर किधर जाय रहे हो.’ हमने कहा जेलर साब ने बुलाया है.
पूछताछ हुई. बड़ा सा ताला खुला. मोबाइल फोन जब्त किए गए. बैग ले लिया गया और हाथों में लगाया गया स्टांप. जैसे डिस्को वगैरह में जाने पर लगता है.
जेल सुपरिटेंडेंट शिव प्रकाश यादव, बेहद मिलनसार. कहा, आप जैसा कहेंगे वैसी व्यवस्था हो जाएगी. बस मोबाइल, जेल परिसर में नहीं जाएगा. पेंटिंग्स की तस्वीरों के लिए कैमरा ले जा सकेंगे.
हमने कहा ज़रा हमारी हरी बुलेट प्रांगण में बढ़िया से पार्क हो जाती तो अच्छा रहता. अनुमति मिली तो वापस गए.
अब बाहर बैठे पुलिस वाले ने हमारे लंबे बालों…….हरी बुलेट और मिलिट्रीनुमा वर्दी को देखकर जो सवाल पूछा वो अभूतपूर्व था.
सिपाही साहब बोले- ‘इ करतब वाली बुलेट है न.’ इससे पहले कि हम कुछ कहते वो फिर बोले, ‘करतब यहीं दिखाओगे या जेल के भीतर.’
हमारी हंसी ऐसी छूटी कि बंद ही न हो. हमने कहा- अरे हम लोग पेंटिंग करने आए हैं……करतब दिखाने नहीं.
खैर अंदर डिप्टी जेलर हरबंस पांडे ने चक्कर लगवाया. किशोर अपराधियों के वार्ड से लेकर, महिलाओं की बैरक और मुख्य कैदियों की बैरक देखने के बाद हमने तय किया कि शुरुआत किशोरों के वार्ड से की जाए.
नूपुर तलवार से मिलना
हां बताना भूल गए..जेल सुपरिटेंडेंट के कमरे में एक महिला मिली. मुझे चेहरा जाना पहचाना सा लगा.
इससे पहले कि कुछ कहता, जेल सुपरिटेंडेंट बोले, ‘इनसे मिलिए… ये नुपुर तलवार हैं.’ मीनाक्षी ने चहकते हुए कहा, ‘आप पेंटिंग कीजिएगा हमारे साथ.’ नुपुर ने अंग्रेज़ी में जवाब दिया था, ‘नहीं नहीं….मैं आर्टिस्ट नहीं हूं.‘ उनके हाथ में किताब थी. पता चला वो जेल के प्रशासनिक कार्यों में मदद करती हैं कई अन्य कैदियों की तरह.
ठहरी हुई आंखे कहीं उदासी में घूम रही होंगी. जेल में दो चार बार उनसे सामना हुआ. महिलाओं के वार्ड में मीनाक्षी ने उनसे एक बार फिर कहा….ज्वाइन अस, लेकिन वो मुस्कुरा कर मना कर गईं. उस मुस्कुराहाट में उदासी घुली थी या उपेक्षा…हम समझ नहीं पाए.
जेल अधिकारियों ने बताया कि राजेश और नुपुर जेल में दांतों के डॉक्टर का काम भी करते हैं.
(जिन्हें नहीं मालूम उनके लिए…नुपुर और राजेश तलवार मृतक आरुषि के मां बाप हैं और डासना में सज़ा काट रहे हैं.)
नंबरदार और पीले कपड़े
हां एक बात और…कई लोग पीले कपड़ों में दिखे. हमने पूछताछ जारी रखी तो पता चला ये सजायाफ्ता कैदी हैं. मुख्यत आजीवन कारावास. पीले कपड़े एक ड्रेस है जो नंबरदार पहनते हैं. नंबरदार यानी जेल प्रशासन की मदद करने वाले, कैदियों को मैनेज करने में.
इनमें से कई गंभीर अपराधों में सज़ा काट रहे हैं और जेल प्रशासन इनके अच्छे रवैय्ये को देखते हुए इन्हें नंबरदार बनाता होगा क्योंकि ये अपराधी संभवत लंबी सज़ा के कारण जेल में कुछ काम करना चाहते होंगे.
इनके अलावा कुछ कैदी राइटर्स भी कहे जाते हैं जिनके जिम्मे लिखा पढ़ी में मदद करना होता है. आगंतुकों को चाय पिलाना, भोजन कराना आदि. इन नंबरदारों और राइटरों से विनम्र लोग मैंने अपने जीवन में बहुत कम देखे थे. दो दिनों में लगा ही नहीं कि हम अपराधियों के साथ हैं.
खैर किशोरों के वार्ड में वरली आर्ट के नाचने वाले फिगर्स बनाए गए जिनके बारे में यहां पढ़ा जा सकता है.
महिला वार्ड की दिक्कतें
दोपहर का खाना जेल में भी खाना था. हम डर रहे थे कि पता नहीं खाना कैसा होगा लेकिन शुद्ध शाकाहारी बेहतरीन भोजन. हां रह रह के बचपन का वो गीत ज़रुर याद आ रहा था…..’’अब तो जेल में जाना पड़ेगा जेल का रोटी खाना पड़ेगा.’’
दोपहर में पेंटिंग करने के लिए महिला वार्ड में गए. महिलाएं मुश्किल से तैयार हुईं और एक बार जो हुईं तो फिर दीवार पर जो मन आया उनका, वो बनाती चली गईं.
यहां काम अधिक मुश्किल था क्योंकि अठारह बच्चों को भी संभालना पड़ा. महिला कैदियों में अहं का टकराव अधिक था. शायद गुटबाजी भी थी.
सिमरन और उसके साथी एक दृश्य बना रहे थे तो बीच में एक और कैदी ने आकर बड़ा सा गुलाब का फूल बना दिया. झिक झिक होते बची. शाम के समय अंडे, पकौड़े, स्पेशल सब्जी बेचने के लिए लोग आए जो महिला कैदी खरीद सकते थे.
हम ये पूछना भूल गए कि इसके लिए पैसे कहां से मिलते हैं. शायद मुलाकात के दौरान परिवार वाले देते होंगे. हमने अनुमान ही लगाया.
रिहाई का परवाना
पेंटिंग करने के दौरान एक पुलिसवाला कोई चिट लेकर आया तो महिलाओं में खुशी की लहर दौड़ पड़ी…आवाज़ आई…तुम्हारा परवाना आ गया..परवाना आ गया…
परवाना मतलब रिहाई की सूचना. शाम तक संभवत रिहाई हो जानी थी उन महिला की.
शाम के समय डिप्टी जेलर के कमरे में कैदियों की रिहाई का नज़ारा ज़िंदगी का एक बड़ा सबक साबित हुआ.
हम कमरे में बैठे थे तभी एक नंबरदार आया और उसने फाइलें ठीक कर के मेज पर रखना शुरु किया. एकदम यंत्रवत, फाइलों के बाद कलम रखा गया और सफेद बोर्ड पर रिहा होने वाले कैदियों की संख्या लिखी गई.
डिप्टी जेलर आए. कुर्सी पर बैठे. फाइल से नाम पुकारा…नंबरदार एक पुरुष कैदी की बाईं कलाई पकड़ कर लाया. क़ैदी की शर्ट उतार दी गई थी.
फिर तो सवालों का झटपट सिलसिला शुरु हुआ…नाम…बाप का नाम..मां का नाम..कितने बच्चे हैं…बच्चों के नाम..पूरा पता बताओ….किस आरोप में थे..कौन से थाने से आए हो…और कोई मामला है या नहीं….किस तारीख को जेल में आए थे..
इन सवालों के जवाब कैदी को देने होते थे. ये सवाल खत्म होते ही जेलर आधे सवाल पूछता जिसका जवाब नंबरदार देते और वो सवाल होते कुछ यूं.
दाईं बांह…..नंबरदार कहता- तिल का निशान…
बाएं भुजदंड पर…नंबरदार कहता- ऊं गुदा हुआ.
बाईं गाल पर….नंबरदार कहता…दो मस्से एक साथ.
हाथों पर ….नंबरदार कहता….कटने के निशान.
ये पहचान के निशान थे जो रजिस्टर में दर्ज़ थे और जेलर, नंबरदार की मदद से पुष्ट कर रहे थे कि सही आदमी को ही रिहा किया जा रहा है या नहीं.
आखिरी सवाल होता, जेलर का- मोबाइल नंबर. कैदी को अपना मोबाइल नंबर बताना होता.
कोई चालीस पचास कैदी रिहा हुए होंगे उस शाम. हम दोनों की सांसे अटकी हुई थीं. अधिकतर कैदी जवान थे …20 से 26 साल के. झगड़ा, मारपीट, अपहरण जैसे मामलों में बंद थे. जमानत पर रिहा हो रहे थे. अधिकतर शादीशुदा थे..एक दो लड़के….लंबे समय के बाद रिहा हो रहे थे दो तीन साल बाद. उनके चेहरे पर हल्की सी खुशी थी.
रिहाई खत्म करने के बाद डिप्टी जेलर ने हम दोनों को देखा और पूछा, कैसा रहा ये अनुभव?
ये अनुभव हम दोनों को अंदर तक हिला देने वाला था. दोनों ही चुप रहे. डिप्टी जेलर मुस्कुराए और बोले ज्यादातर अपराधी हैं…कुछेक बेकसूर भी होंगे लेकिन हम क्या कर सकते हैं.
फेसबुक और साहित्य
कुछ क्षणों के लिए मौन पसरा रहा. फिर उन्होंने कहा, ‘चलिए सुपरिटेंडेट साहब घर पर आपका इंतज़ार कर रहे हैं.’
जेल से सटे हुए बंगले में खाने पर बातचीत हुई फेसबुक से लेकर हिंदी साहित्य के बारे में. शिव प्रकाश यादव जी की साहित्य में रुचि देखकर अच्छा लगा. घर में छोटी मोटी लाइब्रेरी बना रखी है उन्होंने.
दूसरे दिन पेंटिंग का काम जेल के मुख्य हिस्से में था जिसे सर्कल कहा जाता है. हमारी मदद के लिए अजय, कृष्णा और विवेक थे जो पहले से ही जेल में पेंटिंग कर रहे थे. उन्होंने कुछ दीवारों पर दृश्य भी बनाए थे.
अजय और कृष्णा ने बच्चों के वार्ड में पेंटिंग में हमारी मदद की ही थी. मुख्य वार्ड में लंबी दीवार पहले ही सफेद की जा चुकी थी.
हमने काम शुरु किया तो चारों तरफ से कैदियों ने घेर लिया. पेंटिंग के लिए तो कोई राज़ी नहीं था लेकिन सब देखने के लिए खड़े ज़रुर थे.
मीनाक्षी के बार बार आग्रह करने पर सबसे पहले अनुज ने ब्रश उठाया और एक आकृति बनाने लगा. फिर तो कैदियों को रोकना मुश्किल हो गया.
जिसे जहां मन हुआ वहीं अपनी कलाकारी दिखाने लगा. उनकी ये कलाकारी यहां पढ़ी और देखी जा सकती है.
जेल के पेंटर
हां अजय के बारे में बताना रह गया. अजय डकैती के आरोप में पांच साल से जेल काट रहा है. दुबला पतला सांवला अजय मिठुन चक्रवर्ती जैसा लगता है. मिठुन जवानी में ऐसा दिखता होगा. उससे खूब बातें हुई.
अजय 23 फरवरी को जेल से रिहा होगा. वो पेंटिंग करना चाहता है जेल से निकल कर. जेल लोगों को बदल देता है. अजय बदला है या नहीं मुझे मालूम नहीं लेकिन कई घंटों तक उसके साथ रहने के बाद हम ये कह सकते हैं कि उसने एक बार भी नज़र उठाकर बात नहीं की.
जेल के लोगों से उसे शिकायतें भी हो सकती हैं. मैंने बातों बातों में पूछा तो बोला अब क्या शिकायत. अब तो निकल जाएंगे तो कुछ अच्छा काम करेंगे.
कृष्णा अभी ट्रायल पर है. उस पर अपनी बीवी को मारने का आरोप है. इलेक्ट्रिक सामानों की दुकान बर्बाद हो गई. धीर गंभीर कृष्णा को नहीं पता जेल से कब छूटेगा लेकिन उम्मीद है उसे अभी तभी पेंटिंग करता है.
विवेक भी ऐसा ही एक है. एकदम चुप. तिहाड़ में पेंटिंग सीखी. अब डासना में है दूसरे मामले में. सधे हाथों वाले विवेक ने कहा, अगर छूट कर बाहर आया तो पेंटिंग का काम दिलवा दीजिएगा. हम इसी में करियर बनाना चाहते हैं.
अजय और विवेक आखिर में हमारे पास आए थे ये कहने कि उन्हें हम थोड़ा गाइड कर दें. हमने जो संभव था बता दिया कि हम लोग खुद भी अभी तक अपने आप को खोज रहे हैं.
थोड़ा सा ही कुछ बता पाए होंगे हुसैन, रज़ा और पिकासो, सुबोध गुप्ता के बारे में. हम इतना ही कह पाए कि तुम्हारे जैसा अनुभव दुनिया में किसी का नहीं होगा. उस अनुभव को अगर कैनवास पर उतार पाए तो तुम्हें बड़ा कलाकार होने से कोई रोक नहीं सकेगा.