हमारे इस ब्लॉग को पढ़ने और हमें अपने घर आमंत्रित करने की इच्छा रखने वाले कुछ लोगों ने शंकाएं जताई हैं कि वो पेंट नहीं कर सकते. ब्रश नहीं पकड़ सकते. इसलिए हम आज शेयर कर रहे हैं अपने एक मित्र अविनाश कुमार चंचल का अनुभव जिन्होंने MAG-Meenakshi Art Gallery के साथ पेंटिंग की थी कुछ महीने पहले.
The painting half way on the wall of MAGवो दिन गर्म और चिपचिपा सा था. दो दिन पहले ही मुंबई से खूबसूरत हवाओं को लेकर लौटा था. मगर दिल्ली की ये बेचैन गर्मी मुंबईया हवाओं की ठंडक को काफी पीछे छोड़ चुकी थी.
दो दिन में ही शहर ने बैचेन कर दिया था कि अचानक से तीसरा दिन शनिवार आ गया.
कुछ हफ्तों से वीकेंड में सबसे पसंदीदा जगह बन गया था वसंत कुंज जनता फ्लैट्स, जहां एक खूबसूरत प्यारे से जोड़े ने अपना घोंसला बना रखा है.
शब्द और चित्रों के तिनके से जोड़-जोड़ यह घोंसला हर वीकेंड नयापन लिए प्रकट होता है. सुकून और प्यार के इस घोंसले में एक शब्द बुनता है तो दूसरा रेखाओं को आड़े-तिरछे कर चित्र उकेरता है.
घोंसले में शब्द बुनने वाले को दुनिया जे सुशील तो चित्र उकेरने वाली को मीनाक्षी के नाम से बुलाती है.
यूं तो पहले भी कई बार उन शब्दों को सुनने और रेखाओं के आड़े-तिरछेपन को देखने का मौका मिल चुका था लेकिन वह शनिवार कुछ अलग था.
मैं गर्मी से उकताया इंसान जा पहुंचा था उस घोंसले में. बिना यह जाने कि आज इस घोंसले का एक तिनका मेरे हाथों बुना जाना था.
मेरे वहां पहुंचने से पहले ही चौखट पर सुशील रंगों का डब्बा लिए मेरा इंतजार करते दिखे. मैं कुछ समझ नहीं पाया.
“क्या मैं पेंट करने वाला हूं” ? अरे भाई, स्कूल के बाद कभी चित्र बनाने का मौका मिला नहीं, स्कूल में भी अव्वल दर्जे के लिए नहीं पास मार्क्स पाने के लिए चित्र बनाने वाला इंसान रहा हूं”। “मुझसे कैसे होगा”?
लेकिन नहीं.
सुशील ने ठान लिया था- “तुम ही बनाओगे”.
और बीच में मीनाक्षी का आदेशनुमा स्वर- “अरे, बहुत आसान है, हो जाएगा तुमसे. और फिर देखो गलती करोगे तो हम तो हैं ही न”.
‘चलो, कर लेते हैं’– मन ने कहा, इसी बहाने कुछ फोटो-शोटो खिंचवाया जाएगा. मीनाक्षी ने बाहर वाले दीवार पर कुछ आकृतियां खींचनी शुरू कर दी थीं.
मछली सा लग रहा था. तीन मछली, उसके नीचे एक गांधीनुमा सवालिया निशान और सबसे नीचे एक जलता हुआ बम.
ये क्या चीज है- सोचने की जरुरत महसूस नहीं हुई.
मीनाक्षी ने कहा-तुम बीच वाली मछली को पेंट करो. अब गेंद मेरे पाले में. मछलीनुमा रेखाओं के बीच आहिस्ता-आहिस्ता मेरा ब्रश चलने लगा.
अगल-बगल की मछलियों को अंशु और सुशील रंगों से भर रहे थे. बीच-बीच में हंसी-मजाक और सबसे अच्छी किसकी मछली की मीठी प्रतियोगिता के साथ-साथ मीनाक्षी का चित्रों के बारे में- एब्स्ट्रैक्ट, कंटेमपररी आर्ट्स के बारे में, नये-नये आईडिया के बारे में कुछ-कुछ बातें जारी थी.
जहां वो कुछ छूट जाती तो उसमें सुशील भी शब्दों को भरने का काम जारी रखते. धीरे-धीरे हम तीनों पेंट करने में इतने मशगूल हुए कि न दिल्ली की गर्मी का ख्याल आया और न फोटो खिंचवाने का ही.
करीब दो घंटे तक बातचीत-पेंटिग-हंसी-मजाक-और रंगों को भरने का सिलसिला चलता रहा। बीच-बीच में एकाध बार शायद मीनाक्षी ने चाय लाकर सिलसिले को तनिक रोका था लेकिन थका कौन था जो चाय पीता.
चाय प्याले में ही ठंडी होती रही. अभी तो बस रंगों को भरना था.
पहले ही बता चुका हूं कि पेंटिग्स की क्लास में फिसड्डी था बाकि रही सही कसर उस गांव के सरकारी स्कूल मास्टर ने पूरी कर दी थी. जिसके बाद पेंटिग्स की तरफ से ऐसे मुड़ा कि उस गली फिर कभी जाना नहीं हुआ.
‘आत्मविश्वास डगमग’ रहा था हमेशा से इस मामले को लेकर. फिर इस कला में खुद के लिए कुछ पाता भी नहीं देख पाता था लेकिन मैं कितना गलत था ये समझने के लिए मुझे पूरी पेटिंग के खत्म करने तक इंतजार नहीं करना पड़ा.
पेंटिग खत्म हो रही थी लेकिन भीतर गहरे तल में आत्मविश्वास, सुकून और सारे तनाव को हवा बना देने वाला भाव बढ़ता जा रहा था.
और अब बारी पेंटिग के पूरा होने की. अमेजिंग, वंडरफुल, नायाब.
गांधी के तीन बंदरों की कहानी का नैतिक संदेश बचपन में ही पढ़ा था. बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो.
यहां तो तीन बंदरों की जगह तीन मछलियां थी, तीनों में एक बुरा देखने, दूसरा बुरा सुनने और तीसरा बुरा बोलने वाली मछलियां. लेकिन सोचा नहीं था कि गांधी का वो चैप्टर जिन्दगी के किसी हिस्से में ऐसे भी दिख सकता है.
कल्पनातित हिन्दी में एक शब्द है, जिसकी कल्पना न की जा सके. लेकिन कला कल्पना की सीमाओं का अतिक्रमण करके ही बनाया जाता है भूल गया था.
और अंत में नीचे सवालिया गांधी भी पूरे अर्थ को स्पष्ट कर रहा था.
बची-खुची बात गांधी के पूरे नैतिक संदेश को धमाके से उड़ाता नीचे बम की आकृति स्पष्ट कर दे रहा था.
न न न..नहीं..मैं इस पेंटिग को कैसे पूरा कर सकता हूं. सच में मैंने ऐसी किसी पेंटिग को बनाने में अपना छंटाक भर भी दिया है. आज भी खुद पर विश्ववास नहीं हो पाता. लेकिन सौ फीसदी सच है कि पूरे पेटिंग का एक बड़ा हिस्सा मैंने इन्हीं हाथों से बनाया/पेंट किया है. उनमें रंग भरे हैं.
शुक्रिया जैसे शब्द बेहद फॉर्मल होते हैं. बचता हूं इसको कहने से. लेकिन इस मौके के लिए, जिन्दगी के किसी एक पल में खुद को पेंटर-कलाकार समझे जाने के लिए क्या कोई शब्द है या बदले में क्या कुछ है जो मैं मीनाक्षी को लौटा पाउंगा।.
शायद जवाब है-नहीं. कुछ चीजें उधार रह जाने के लिए ही होती हैं.
वो पल भी जब खुद को चित्रकार-कलाकार समझा था-हमेशा के लिए पास रह गया है-ऐसा उधार जिसे मैं कभी लौटाना नहीं चाहूंगा.
{पुनश्चः मैं फिर हिस्सा होना चाहता हूं मीनाक्षी-जे सुशील. ऐसी ही किसी पेंटिग का. बार-बार हिस्सा होना चाहता हूं.}