दो हफ्ते पहले हमने फेसबुक पर लोगों से कहा था कि अगर वो हमारे घर आकर पेंट करना चाहें तो आ सकते हैं. धीरज पांडे ने इच्छा जाहिर की. घर आए और पेंट किया. सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में काम करने वाले धीरज का दिल साहित्य और राजनीति के लिए धड़कता है. मैंने आग्रह किया ब्लॉग के लिए लिखने का. आज पढ़िए धीरज पांडे की कलम से. उनका अनभुव Artologue के साथ.
महानगरो की आपाधापी में, ऑफिस में काम से ब्रेक लेने में, खचाखच भरी मेट्रो के अकेलेपन में या फिर कमरे के चीखते एकांत में – फेसबुक के महत्व से कोई इंकार शायद ही करे आजकल.
भारत एक विविधिताओं का देश है, इसका कन्फर्मेशन फेसबुक से बढ़िया कोई नहीं दे सकता. हर प्रकार की प्रजाति पाई जाती है वहाँ. कुछ उकसाने वाले तो कुछ बहलाने वाले, कुछ की सड़ाँध पढ़ लो तो फेसबुक छोड़ देने का मन कर जाता है लेकिन तभी कईयों के कुछ करने, लिखने की खुशबू गले लगा कर रोक लेती है.
कुछ दिनों पहले ऐसा ही कुछ पढ़ने को मिला Artologue के रूप में, एक हल्की बारिश के बाद उठती सोंधी सी सुगंध सा. रचयिता थे घनी मूछों वाले पतले से जे सुशील और उनकी संगिनी छोटी छोटी चमकीली आँखों वाली मीनाक्षी.
आर्ट के माध्यम से खुद के करीब आने में मदद करने की मुहिम लेकर निकल पड़े थे हरी बुलेट पर. बेहतरीन सोच. जो भी मुझे अच्छा लगे उनसे मिलने का मन करने लगता है. पिछले हफ्ते ओपन इन्वाइट आया फेसबुक पर और सौभाग्य मेरा जो परमिशन भी मिल गई.
शनिवार की सुबह अगर मैं आठ बजे उठ गया तो उस दिन वाकई कुछ खास होगा. दोपहर में पहुँच पाया वसंत कुँज के उस फ्लैट पर, कुलदीप बाबू की मेहरबानी से.
शर्बत पानी की औपचारिकता पहले होनी थी, शायद पहली दफा मिल रहे थे इसलिए.
दीवार पर चार मुखड़ो का फ्रेम तैयार था. अपने अपने मुखड़े चुन कर उन्हें अपनी सोच से परिभाषित करना था. उससे पहले हाथ रवां करना जरुरी था ,
बचपन के बाद पहली बार ब्रश थामा था हाथो में. खिड़की के फ्रेम पर हाथ चलाते ही महसूस हुआ कि कोई था भीतर जो बचपन में कही छूट गया था…अब वो फिर से मिल गया है.
वाकई हमारे भीतर हर उम्र का अलग अलग प्रतिबिम्ब रहता है, सबकी अपनी खासियत होती है. आप कितनों को याद रख पाते है ये यक्ष प्रश्न होता जाता है बीतते समय के साथ.
खैर भूला बिसरा ही सही कोई बाल-रूप मिल गया था, मन में हिलोरें उठ रही थीं. सुशील भैया के सधे डायरेक्शन देने और मीनाक्षी भाभी के उन्हें हड़काने में कि “ज्यादा डायरेक्शन ना दो , खुद से करने दो” के बीच मेरा बचपना हावी हो चला था , मज़ा आ रहा था.
हँसी मज़ाक में ही हमने कुछ बना डाला था उन मुखड़ों पर और उसे बनाते समय कुलदीप के साथ मीठी स्पर्धा…. वाह ! जी हाँ !
दिन की एक उपलब्धि थी स्वादिष्ट खिचड़ी का भोज. लाजवाब. पुनः रंगों से खेलना शुरू किया.शाम की हल्की बारिश ने उस पूरे दिन में अंतिम चटकीला रंग भर दिया था.
वापसी में ये सोचता रहा कि वाकई ऐसे भी लोग है हमारे बीच… जो आपको आपसे मिलाने का जरिया बन जाते हैं.
ये जोड़ा यही काम कुछ ब्रश और रंगो की मदद से कर रहा है. धन्यवाद कहना नहीं चाहता क्योंकि जानता हूं आप लोगो को अच्छा नहीं लगेगा. फिर मिलना होगा.