अमरीका आते समय जिस बात का दुख सबसे अधिक था उसमें एक बात यही थी कि आर्टोलॉग को कैसे आगे बढ़ाया जाएगा क्योंकि मीनाक्षी की पढ़ाई फिर से शुरु हो रही थी. हालांकि ये तय किया गया कि छुट्टियों में आर्टोलॉग का काम जारी रहेगा.
इसी कारण पिछले साल हमने दतिया, फिरोज़पुर और अमरीका आने से हफ्ते भर पहले हरियाणा में और और रवानगी से एक दिन पहले दक्षिण एशिया यूनिवर्सिटी में पेंटिंग का काम किया था. फिरोज़पुर और साउथ एशिया यूनिवर्सिटी वाले ब्लॉग भी अभी तक लिखे नहीं जा पाए हैं.
खैर अमरीका पेंटिंग की पढ़ाई करने ही आई थी मीनाक्षी और यहां उसने ऑर्टोलॉग के काम के मद्देनजर कम्युनिटी आर्ट का एक कोर्स भी लिया था. इसी कोर्स के तहत अमरीका में आर्टोलॉग का पहला काम हुआ जिसमें मी ने एक इंस्टालेशन बनाया घूमती हुई मछलियों का वो भी उन लोगों के साथ मिलकर जिन्हें ऑटिज्म की बीमारी है.
ऑटिज़्म एक किस्म की मानसिक-शारीरिक समस्या है जो बचपन में ही शुरु हो जाती है और इससे पीड़ित बच्चा या व्यक्ति खुद को कम्युनिकेट करने में और दूसरों से संबंध स्थापित करने में खुद को अक्षम पाता है. ऐसे लोगों के साथ काम करना आसान बिल्कुल नहीं होता है.
रांची में कुछ ऐसे बच्चों के साथ हमने काम किया था लेकिन यहां सारे बड़े लोग थे और मीनाक्षी को अकेले काम करना था. जे का काम बस सलाह देने भर का था क्योंकि मीनाक्षी के कोर्स के प्रोफेसर इस काम के लिए मीनाक्षी को गाइड कर रहे थे.
ये पहला काम था जिसमें करीब तीन महीने तक लगातार ऑटिज्म के एक केंद्र में मीनाक्षी जाती रही हर हफ्ते जहां क्या आर्ट बनेगा और कैसे लगेगा इस पर लंबी बातचीत होती रही. कई डिजाइन बनाए गए और अंतत एक डिजाइन फाइनल किया गया क्योंकि उसमें ये देखना ज़रूरी था कि कोई भी कलाकृति ऐसी न हो जिससे ऑटिज्म वाले लोगों को दिक्कत हो या चोट लगे.
मीनाक्षी ने तय किया था कि पेंटिंग नहीं करेगी बल्कि ऐसा कुछ बनाएगी जिससे ऑटिज्म वाले लोग इनवाल्व हो सकें. ये ज़रा टेढ़ा काम होता है खैर तय हुआ कि एक मछलियों का एक्वेरियम जैसा बने लेकिन दीवार पर एक्वेरियम की फील कैसे लाई जाएगी ये एक चुनौती थी.
उस माथापच्ची को अलग रख दें तो मोटा मोटी ये तय हुआ कि पहले एक लकड़ी का बोर्ड होगा जिसमें पानी और समुद्र बनाया जाए. उसके ऊपर एक प्लास्टिक की मोटी चादर हो जिसे बारीकी से यूं काटा जाए कि उसमें मछलियां फंसा दी जाएं जो घूम सकें उन कटे हुए रास्तों में.
आइडिया सोचने में और कागज पर आसान था लेकिन असल में अत्यंत कठिन. प्लास्टिक शीट को बारीकी से यूं काटना की वो टूटे नहीं बहुत ही कठिन कार्य होता है. लेकिन जहां से शीट खरीदी वहां के इंजीनियर से शीट काट कर दी.
इंस्टालेशन के दिन मुझे भी साथ जाना था क्योंकि तब तक मीनाक्षी और मैं ….मां बाप बन चुके थे.
हां ये बताना रह गया कि ऑटिज्म केंद्र में काम के दौरान मीनाक्षी प्रेग्नेंट थी और आखिरी दिनों में जब ये काम इंस्टाल हुआ तब हमारा सबद कुछ ही ही हफ्तों का था.
इंस्टाल करने की पूरी प्रक्रिया भारत से बिल्कुल अलग थी. खैर हम भी पहली बार ही कोई आर्टवर्क इंस्टाल कर रहे थे. यहां कील गाड़ने से लेकर छेद करने तक सारा काम खुद ही करना होता है. वो तो भला हो मीनाक्षी के प्रोफेसर का जो इन सब कार्यों में सक्षम थे.
पहले लकड़ी का बोर्ड लगाया गया जिसके लिए छह कीलें गाड़ी गईं. उसके बाद स्पेसर लगा कर प्लास्टिक की शीट लगाई गई. स्पेसर ज़रूरी था लगाना ताकि बोर्ड और शीट के बीच में जगह रहे वर्ना बिना जगह के मछलियां घूमती कैसे. ये स्पेसर लगाना सबसे टेढ़ा काम रहा लेकिन हो गया समझिए.
मीनाक्षी ने दो तरह की मछलियां बनाई थीं. एक मछली सेरामिक्स की और दूसरी कपड़ों की. इनके बारे में आप अंग्रेजी वाले ब्लॉग में पढ़ सकते हैं या फिर यहां क्लिक कर लें. https://artologue.in/autism-centre-first-project-in-usa/
काम इंस्टाल होने में लगभग पूरा दिन लग गया और बड़ी मेहनत से ये इंस्टाल हो पाया. इसके दो दिन बाद इसका उदघाटन हुआ और उसमें सबसे अधिक खुशी हम सभी को तब हुई जब ऑटिज्म वाले लोग आए और बार बार मछलियों को उन रास्तों पर घूमाते रहे जो उनके घुमाने के लिए बनी थीं.
मेरी खुशी इस बात की सबसे अधिक थी कि आर्टोलॉग रूका नहीं…..जो यात्रा 2013 में वसंत कुंज के एक कमरे के घर से शुरु हुई थी वो अमरीका तक पहुंची है. हालांकि नए देश में काम आसान नहीं है लेकिन हमने कोशिश की है और एक काम तो हो गया है. उम्मीद है कि आर्टोलॉग को और लोग अमरीका में बुलाएंगे और आर्ट की ये यात्रा जारी रहेगी.