‘लाइफ में कुछ तो अच्छा कर के जाना है…’

साल 2017 के कई ब्लॉग नहीं लिखे गए थे. लेकिन अब धीरे धीरे सारे ब्लॉग अपडेट कर रहे हैं. दिल्ली के द्वारका में एक बेसहारा, अनाथ बच्चों का केंद्र है जो सरकारी तो नहीं है लेकिन बहुत अच्छे से चलता है. सारे बच्चों का डाटा होता है और पुलिस के पास जो अनाथ बच्चे आते हैं उन्हें यहां रखा जाता है. पढ़ाया लिखाया जाता है. हर बच्चे की कहानी अलग अलग है. वहीं विजेंद्र कुमार कर्ण भी काम करते थे जो आर्टोलॉग को फेसबुक के ज़रिए जान रहे थे. उन्होंने आर्टोलॉग को बुलाया पेंट करने के लिए और हमने पेंट किया. अब विजेंद्र कुमार कर्ण की कलम से पढ़िए उनका अनुभव मी, जे और आर्टोलॉग के साथ काम करने का. विजेंद्र ने हाल ही में अहमदाबाद में एडवरटाइजिंग में नया काम शुरू किया है लेकिन उम्मीद है कि वो अपने समय का एक हिस्सा सामाजिक कार्यों में लगाते रहेंगे.

 

जे कपल……. नाम तो सुना होगा ….. क्या कहा नहीं सुना? तो कोई बात नहीं. हम सुनाते हैं.

अब कपल हैं तो दो लोग तो होंगे ना.. तो ये दो लोग हैं सुशील और मीनाक्षी.

एक को जे कहलाना पसंद है दूसरे को मी. ये दोनों कुछ ख़ास हैं. क्यों खास हैं ये सवाल ज़ेहन में आने दें. ये एक नेचुरल प्रक्रिया है.

हम सबसे पहले बता दें ये हैं कौन? ये दोनों रंगबाज़ हैं! अरे..रे रे..डरिये नहीं. वो वाले रंगबाज़ नहीं. पेंट और ब्रश से सबकुछ रंगने वाले रंगबाज़. जे.एन.यू से दोनों पढ़े-लिखे हैं। बी.बी.सी में पत्रकार हैं जे….। और मी…..। अरे… मी ही तो है वो असली रंगबाज़ जिसने जे को पहले रंगा और फिर दोनों निकल पड़े अपनी प्यारी सी बुलेट ‘हरी-भरी’ में दुनिया को रंगने…

इनके पास दो बुलेट हैं एक ‘केसरिया” और एक “हरी-भरी’. दोनों इन्हीं के तरह ही हैं…कलाकार टाइप. बस-बस कहानी बुलेट कपल की नहीं जे कपल की है इसलिए कंन्सनट्रेट उन्हीं पर करिये. वैसे थोड़ा- थोड़ा इम्प्रैस हो रहें हैं ना….. इस जोड़ी से. अगर नहीं, तो अब होना पड़ेगा। क्योंकि अब मैं आपके सवाल का जवाब दूंगा कि क्यों हैं ये दोनों ख़ास….

ये दोनों ख़ास इसलिए हैं क्योंकि ये जो चाहते हैं वो करते हैं. ये जैसे जीना चाहते हैं वैसे जीते हैं. जो आप और हम प्लानिंग करने में अपनी पूरी ज़िंदगी निकाल देते हैं वो ये करते हैं. ये उन पलों को जीते हैं. सोशल मीडिया के ज़रिये इन्हें जाना और ये मुझे अच्छे लगे.

जे झारखंडी हैं और मैं भी… तो ये अलग तरह का कनेक्शन भी था जिससे मैं और भी ज्यादा इन्हें पसंद करने लगा. फेसबुक पर इनके पोस्ट पढ़ता और इनकी सारी यात्राओं में इनके साथ वर्चुअली रहता. ये अक्सर बच्चों के बीच पेंटिग करते. कभी किसी के घर जाकर पेंट करते. कभी किसी स्कूल में. जेल की दीवारें भी रंग आए हैं ये दोनों.

हम लेखन के साथ थोड़ा सोशल वर्क भी करते हैं तो, हम ये चाहते थे कि इन्हें बुलाया जाए और हम जिस एन.जी.ओ के माध्यम से ग़रीब, अनाथ और बेसहारा बच्चों के बीच काम करते थे वहां बच्चों के साथ पेंटिग की जाए और कुछ सीखा जाए इस मस्तमौला जोड़ी से..

फेसबुक से जे को जज करना मुश्किल है. ये थोड़ा अड़ियल, थोड़े गुस्सैल से लग सकते हैं लेकिन, वैसे बिल्कुल भी नहीं हैं, ये तो इनसे मुलाकात के बाद ही समझा जा सकता है.

हमने इन्हें अप्रोच किया कि “साहब आइए हमारे बच्चों के साथ पेंटिग कीजिए“ ये बिना किसी इफ या बट के तैयार हो गए.

वो भी तब जब दो या तीन दिनों के बाद ये देश छोड़ अमेरिका जाने वाले थे। मी को स्कॉलरशिप मिली थी और किसी बड़े आर्ट स्कूल में एडमिशन…. जे दो साल का लीव लेकर या क्या पता नौकरी छोड़कर निकलने वाले थे मी के सपनों के लिए.

यही है साहब…यही बनाता है इन्हें अलग. मुझे तो बाद में पता लगा जब इन्होंने अमेरिका वाली बात फेसबुक पर पोस्ट की. अब आप ही सोचिए दो दिन बाद जिसे अमेरिका निकलना है उसे कितनी तैयारी करनी होती होगी लेकिन तैयारी को किसी खूंटे में बांध ये दोनों आ गए हमारे यहां.

जे को शायद बच्चे बहुत पसंद हैं इसलिए इन्हें पता है कि बच्चों से दोस्ती कैसे की जाती है. दस से पंद्रह मिनट के अंदर ही पचास से ज्यादा बच्चे इनके दोस्त बन गये और ये उनके. फिर शुरू हुई रंगबाजी.

बच्चों से पूछा गया क्या बनाया जाए….? किसी ने कुछ तो किसी ने कुछ कहा.अब बच्चे हैं कोई मकबूल फिदा हुसैन तो नहीं. तब मी ने सुझाया कि कुछ ऐसा बनाया जाए जो उन्होंने देखा नहीं. फिर डायनासोर पर डील पक्की हो गई. पूरा का पूरा ‘आशा-गृह’ वो होम जहां ये बच्चे रहते थे छोटे-छोटे कलाकारों में तब्दील हो गया और दीवार पर उभरकर आने लगा एक सपना.

एक प्यारा सा शाकाहारी डायनासोर. बच्चों का इन्वॉलवमेंट पूरा हो इसका पूरा ख्याल रखा जाता है इसलिये छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा बच्चा भी था इस आर्ट वर्क का हिस्सा. जे कपल पूरी तल्लीनता से लगे हुये थे बच्चों के साथ. ब्रश कैसे पकड़ते हैं. रंग का इस्तेमाल कैसे होता है कोई गड़बड़ी हो तो कैसे सुधारें ये सारी बातें बच्चों को सिखाते-सिखाते पूरा माहौल एकदम आर्टमय हो गया.

मैंने देखा कि यूं तो मी कलाकार हैं लेकिन जे आइडिया ते दे ही रहे थे ब्रश थाम वो भी पूरी शिद्दत से लगे हुये थे. बीच-बीच में जे बच्चों की स्टोरी मुझसे पूछते..ये कैसे आए …कहां से आए… मैं ये बातें इन्हें बताता. ये कुछ सोचते…फिर लग जाते अपने काम में.

मी एक शानदार कलाकार हैं और एक बहुत ही अच्छी लेडी. बहुत कॉपरेटिव. डाऊन टू अर्थ. ऐसे लोग मुझे अच्छे लगते हैं क्योंकि ऐसे लोग कम हैं..ऐसा मेरा मानना है. लगातार पांच से छ: घंटे पेंट करने के बाद भी मुस्कुराती हुई मी और खिलखिलाता हुआ जे बताते हैं ज़िंदगी ऐसी ही है …..इसे रंगते रहिये साहब…, क्योंकि ये घट रही है हर पल… इसलिए कुछ ऐसा चित्र बना कर अलविदा कहें इस दुनिया को कि जाने के बाद लोग कहें “बाई गॉड क्या कलाकार थे …”