जो मुलाक़ात हुई नहीं उसका शीर्षक क्या हो?

किशोर चौधरी हिंदी किताबें पढ़ने वालों के लिए परिचित नाम है. किशोर रेगिस्तान के वासी हैं और उनकी कहानियों, पुस्तकों और फेसबुक पोस्टों में भी रेगिस्तान की रूमानियत झलकती है. उनसे कई बार मिलना तय हुआ लेकिन हम दोनों एक साथ कभी मिल नहीं सके. पिछले दिनों दिल्ली में मुलाक़ात हुई तो तो उन्होंने वादा किया कुछ लिखने का…किशोर जी का लिखा हुआ पढ़िए..जानकारियों से और थोड़ी हमारी तारीफों से भरा हुआ लेकिन उनकी शब्दों की मुलामियत और रूमानियत को महसूस कीजिए..

Sailing in Desert: Artologue Project- A traveling community art work, 10x15 feet wall, a village school in Rajasthan, 2014

Sailing in Desert: Artologue Project- A traveling community art work, 10×15 feet wall, a village school in Rajasthan, 2014

कॉलेज और विश्वविद्यालयों के दिन किसी के जीवन से कभी मिटाए नहीं जा सकते हैं. वे ऐसे दिन होते हैं जब जीवन के हर काम में एक रुमान बसा होता है. मुझे लगता है कि छात्र जीवन प्रेम और क्रांति के स्वप्नों से सरोबर होता है. इन्हीं दो ध्रुवों के बीच का विस्तार अक्सर कलाओं से पोषित होता है. वे दिन ऐसे होते हैं कि अल्हड़ता का हल्का सुरूर कक्षाओं और कक्षों के बाहर की सीढियों पर बे लगाम बातें करता रहता है.

मुझे अगर अवसर मिले तो मैं फिर से बहुत से विश्वविद्यालयों की सीढियों पर बैठना चाहूँगा. कि याद के सबसे रूमानी हिस्से अब तक वहीँ भटकते हैं. उन दिनों समन्था फॉक्स के पोस्टर खूब लोकप्रिय थे. शॉर्ट पहने और लगभग उघड़े बदन वाले पोस्टर छात्रावासों के हर तीसरे कमरे में दिख जाते थे. इससे कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि ये किस दशक की बात है.

वे दिन पश्चिम की शैली के दीवानेपन के दिन थे. मगर सहज मानवीय अभिरुचियाँ उन कलाओं में थीं, जिनसे स्वयं को अभिव्यक्त कर पाते थे. पोस्टर-बैनर बनाने से लेकर दीवारों पर स्लोगन लिखने. जन नायकों के रेखाचित्र बनाने में छात्र-छात्राएं मन से जुटे रहते थे.

मैं उन दिनों को ठीक इस तरह याद करता हूँ कि एक कीथ हैरिंग था. जो चला गया था. छात्रावास के मैस में सुबह की चाय और अनेक छात्रों के बीच बिखरे अख़बारों के पन्नों में किसी अंग्रेजी अख़बार में जो लिखा था. उसका आशय था- न्यू यॉर्क की गलियों की रंगीनी चली गयी.

कीथ हैरिंग फाउंडेशन

कीथ हमसे कोई दस एक साल बड़ा था. हम जब तक अपना मास्टर्स करते वह दुनिया से जा चुका था. जहाँ कहीं भी दीवारों पर उकेरे हुए चित्र दिख जाते थे, कीथ ज़रूर किसी न किसी को याद आता था. विजुवल आर्ट्स के एक बेहतरीन स्कूल से पढ़कर भूमिगत मार्गों और गलियों की दीवारों का प्रेमी बना कीथ असाधारण ही था. संभव है कि कई बार परिस्थितियां हमें असाधारण होने को चुन लेती हैं.

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कीथ अस्सी के दशक में मेट्रो स्टेशनों और भूमिगत पार मार्गों में चित्र उकेरने लगा. उसे व्यावसायिक अभद्र विज्ञापनों से चिढ थी या नहीं, ये कहना मुश्किल है मगर उसे कला से प्रेम था. वह चित्रों के माध्यम से सूनी दीवारों को रंग देना चाहता था. उसकी रेखाओं से बने आकारों में गति और कोमल लय थी.

उनको देखने से लगता था कि सबकुछ एक दूजे से निबद्ध है. और जो इस तरह बंधा नहीं है वह गतिमान है. वह “अप साइड डाउन” सोच रहा है. कीथ ने सचमुच न्यू यॉर्क में एक नया रंग भर दिया था. उसका जाना बेहद दुखद था.

कुछ एक साल पहले मुझे कीथ की याद इसलिए भी आई कि अगर वह कभी भारत आता तो जे दंपत्ति के आस पास देखा जा सकता था. ये तीनों लोग किसी दीवार पर चित्र मांड रहे होते. मांडना यानि उकेरना मनुष्य की सबसे प्राचीन और प्रिय कला है.

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पांच हज़ार साल के इतिहास में लिखना बाद की बात है, जबकि मांडना पहले की. फिर जाने क्यों हमने इसे भुला दिया. क्या हम सचमुच ऐसे हैं कि किसी एक सीढी पर पाँव रखकर आगे बढ़ जाते हैं और उस सीढी को भुला देते हैं. हमारी आदिम सभ्यता में अफ्रीका से लेकर यूरोप तक, आदिवासियों के अमेरिका से लेकर रोम की स्मृतियों तक में भित्ति चित्र बसे हुए हैं.

मुझे रेगिस्तान से प्रेम है. ये मेरी मातृभूमि है. यहाँ घरों के बाहर और भीतर की दीवारें विवाह समाराहों की रेखीय छवियों, पेड़-पौधों, फूलों, पंछियों के अलावा हाथी और मगरमच्छ जैसे रेगिस्तान में न देखे जाने वाले जीवों के चित्रों से सजी रहती हैं.

मैं जिस रोज़ मीनाक्षी जे को पहली बार किसी तस्वीर में देखता हूँ, ठहर जाता हूँ. दीवार पर मछली उकेर रही मीनाक्षी जे और उन्हीं तस्वीरों में खड़े हुए सुशील जे. आप जब इनको जानने लगते हैं तो पाते हैं कि वे दीवानावार अपना प्रिय काम किये जा रहे हैं. अपने समाज को, परिवारों को और लोगों को लोक की जड़ों से जोड़ना. इस तरह के प्रयासों को देखते हुए बेहद ख़ुशी होती है कि लोग शहरी घरों के ड्राइंग रूम में दीवारों पर मांडने उकेर रहे हैं. वे जे दंपत्ति को अपने घर आने का न्योता देते हैं.

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किसी कलाकार का घर आकर पेंट करना कोई नयी बात नहीं है मगर जब कलाकार घर के सदस्यों से कहे कि आप भी कीजिये. आप कर सकते हैं. और वे ठिठके सहमे हाथ, वे लरज़ती अंगुलियाँ रंग और कूची से मुखातिब हो जाती हैं.

पाब्लो पिकासो ने यही कहा था- “रोज़मर्रा के जीवन में आत्मा पर जमी बारीक धूल को साफ़ करना ही कला का मकसद है.” जे दंपत्ति मुझे इसलिए ही प्रिय हैं कि वे लोगों को याद दिला रहे हैं कि अपनी आत्मा से धूल झाड़ने का एक तरीका कला, रेखाएं और रंग है.

मैं जे दंपत्ति से कभी नहीं मिला मगर जब भी दिल्ली जाता हूँ तो उनका ख़याल रहता है. काश कहीं मिल सकें. इसी गरज में अपने प्रकाशक मित्र शैलेश भारतवासी के साथ बीबीसी के दफ्तर में सुशील जे से एक संक्षिप्त मुलाकात होती है. हमारे पास कहने करने को बेहिसाब बातें थी. मैं उसने जानना चाहता था कि ये सिलसिला कहाँ से शुरू होता है? क्या बात है जो आप दोनों को एक साथ उकसाती है कि देश भर के गांवों क़स्बो में अपनी रॉयल एनफील्ड गाड़ी पर सफ़र करते हुए दीवारों में रंग भरते रहते हैं.

The painting in a village in Hazaribagh

The painting in a village in Hazaribagh

मैं उनसे ये भी जानना चाहता कि देशभर के लोग सोशल माध्यमों पर फोलो करते हैं. वे बुलाते हैं. और वहां तक जाने और बच्चों और बड़ों के साथ काम करने के अनुभव कैसे हैं. क्या कहीं ये सिरा मिलता है कि वे दो लोग जिस मकसद से अपना श्रम, समय और कला इन्वेस्ट कर रहे हैं, क्या वह कामयाब है.

लेकिन एक छोटी मुलाकात में उनसे सिर्फ एक छोटी सी बात हो पाती है. मैं सुशील साहब से पूछता हूँ कि कला जब तक व्यक्ति के लिए है उसके दाम बेहिसाब है. लेकिन जहाँ कला समाज के लिए है वहां पैरोकार कोई नहीं है.

वे कहते हैं- “सचमुच यही एक बड़ी बात है कि जब आप समाज के लिए कला को चुनते हैं तो लोग इससे अपना वास्ता नहीं समझते. वे इसे केवल आपका काम समझते हैं. समाज का नहीं. इस तरह बाइक पर घूमते हुए. विषम परिस्थितियों में यात्रा करते हुए. तपते रेगिस्तान से लेकर उबड़ खाबड़ पहाड़ों के संकरे रास्तों पर चलना कोई आसान काम नहीं है. मगर हम जहाँ कहीं नन्हीं अंगुलियाँ रंग से भरी देखते हैं तो आत्मा प्रसन्न हो जाती है.”

 

more and more kids joinedभित्ति लेखन, भित्ति चित्रकला दुनिया के हर कोने में है. कभी कोई एक अकेला दीवारों को रंगने चल पड़ता है तो अचानक से शहरों कि गलियों में अनेक लोग निकल आते हैं. घरों की सुनी बदरंग दीवारों पर बेहतरीन कला देखने को मिलती है. मैं जे दंपत्ति से कभी इस बारे में बात नहीं कर पाया मगर वे मिलेंगे तो पूछूँगा कि जीवन छोटा है और कलाएं दीर्घजीवी हैं, आपने क्या सोचा है?

मुझे विश्वास है कि रंगों की चाह में की गयी अनेक लम्बी यात्राओं ने उन्हें गहरे अनुभवों से भरा है. उनसे कभी सवाल जवाब हुए तो मैं उन पथरीले रेतीले रास्तों, मौसमों के सितम और मेजबानों के गहरे सत्कार के बारे में जान पाऊंगा.

जैसे कीथ हैरिंग की कला को मैंने विश्विद्यालय के दिनों में अख़बारों और पत्रिकाओं के माध्यम से जाना था. वैसे ही पिछले कुछ बरसों से मैं जे दंपत्ति के काम को सोशल मिडिया, ऑनलाइन मैगजींस और प्रिंट में देख रहा हूँ. इनके काम में जो लोक जीवन की ख़ुशबू है, वही मेरे सम्मोहन का प्राण है.

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